शनिवार, 23 जनवरी 2021

आकांक्षा (कहानी)

कोलफील्ड मिरर 24 जनवरी 2021: ये बाथरूम का दरवाज़ा क्यों नहीं खुल रहा है, सविता? चीकू अंदर बैठा क्या कर रहा है, बाहर क्यों नहीं आ रहा? दरवाज़ा खटखटाने से अंदर से कोई जवाब भी नहीं दे रहा है! हाँ जी! जाने कब से घुसा हुआ है, घंटा-दो घंटा तो हो ही गया होगा! मुझे तो अब चिंता होने लगी है, कहीं कुछ अनिष्ट...। 

   बारहवीं की परीक्षा में विज्ञान के दो विषयों में फेल होने के बाद वैसे भी वह अंदर से टूटा हुआ है”, सविता ने काँपकर कहा। इस विचार ने मलिक जी का संयम खत्म कर दिया और उन्होंने बाथरूम का दरवाज़ा तोड़ दिया। सामने फंदे से लटकता हुआ चीकू का शरीर था। नसों में खून जम जाए ऐसा दृश्य देखकर, चीत्कार को गले में ही दबाते हुए चीकू के शरीर को नीचे उतारा। उसके ठंडे पड़े शरीर में जीवन का चिन्ह खोजने लगे, पर सर्द और पथराए शरीर को देखकर बाथरूम के गीले फर्श पर ही पछाड़ खाकर गिर पड़े। 

   रुदन और प्रलाप बाथरूम की हदें पार करके बाहर आना शुरू हो गया। चीक्क्क्कूऽऽऽऽऽऽ! यह तूने क्या कर लिया बेटाऽऽऽ? परीक्षा में फेल होना कोई ऐसा अपराध तो नहीं कि इंसान खुद को इतनी बड़ी सजा देऽ। यह सजा तूने खुद को नहीं अपने माँ-बाप और बहन को दी है बेटा! हम तुम्हारे बिना अब कैसे जी पाएँगे...। मुझसे एक बार बात तो करता बेटा! हर इंसान अपनी जिंदगी में कभी न कभी फेल होता है; स्कूल में, दफ्तर में, कभी व्यवसाय में। कोरोना से मेरे व्यवसाय की भी कमर टूट गई है बेटा! तो क्या मैंने खुद को खत्म कर लूँ? जमा पैसे तुड़वा-तुड़वा कर घर के खर्चे निकाल रहा हूँ। क्या तुम फेल होने से मेरी जिगर का टुकड़ा नहीं रहे थे? तुम्हारे इस तरह दुनिया छोड़कर चले जाने का कारण मैं ही हूँ बेटा। तुम्हारे परिणाम आने के बाद तुमसे कहना चाहिए था, ‘ठीक है बेटा! फिर से कोशिश करो, आगे सब अच्छा होगा।पर मैं ऐसा नहीं कह पाया, पत्थर दिल बाप जो था। 

    अपने इस गुनाह का प्रायश्चित जब तक मैं जीवित रहूँगा, करता रहूँगा। फिर भी शायद वह काफी नहीं होगा। बिलकुल जड़ बुद्धि बाप हूँ मैं। अब मेरी जिंदगी की हर एक साँस मुझे बोझ लगेगी बेटा! सविता! देखो हमारे चीकू ने यह क्या कर लिया? अब हम क्या करेंगे? जीते जी हमें मार कर चला गया! आखिर हमने ऐसा क्या गुनाह किया था, जिसकी इतनी बड़ी सजा मिली?” कहकर बाथरूम के फर्श पर ही अपना सर दे मारा। लगी चोट से उनका दिमाग झनझना उठा। मलिक जी के इस तरह रोने बिलखने और फर्श पर गिरने की आवाजें सुनकर सविता भी दौड़ी-दौड़ी आई, “क्या हो गया है तुम्हें? रात को डेढ़ बज रहे हैं और तुम बड़बड़ाए जा रहे हो! ना सोते हो ना घरवालों को सोने देते हो। कब तक चलता रहेगा ऐसा तुम्हारा? 

   डॉक्टर ने भी चीकू को अकेले छोड़ने से मना किया है तो मुझे भी उसके साथ ही रहना पड़ता है। तुम भी अपने आप को संभालो और अकेले सोने की आदत डालो। रात भर बड़बड़ाओगे तो लोग सोएँगे कैसे? सब की तबियत खराब हो जाएगी। मलिक जी पलंग के नीचे गिरे हुए थे। पत्नी की सहायता से उठकर पलंग पर बैठ गए और फफक-फफक कर रोने लगे, “अच्छा हुआ सविता जो नींद खुल गई। वरना जो सपने में चल रहा था वह मेरी जान लेकर जाता। ऐसे सपने मुझे बार-बार आ रहे हैं। लगता है मुझे भी मनोचिकित्सक से मिलना पड़ेगा। चीकू के मनोचिकित्सक से ही बात करूँगा। मेरी ही गलती थी, सविता! मैंने ही उसे अपनी दमित इच्छाओं की पूर्ति का माध्यम समझा। अपने समय मैं किसी भी प्रतियोगिता में सफल नहीं पाया था तो अपने अधूरे सपनों की पूर्ति का ज़रिया अपने बेटे को ही समझ बैठा। भूल गया था कि वह भी मेरी तरह बस औसत से कुछ ऊपर का छात्र है। 

   “हाँ जी! औरों की देखा-देखी हमने कहा कि कॉलेज आने-जाने में वक्त बर्बाद होगा और आईआईटी की कोचिंग में दाखिला करा दिया। बारहवीं के लिए फ्लाइंग कैंडिडेट बना दिया, जबकि वह बारहवीं की पढ़ाई के लिए कॉलेज जाना चाहता था। बारहवीं पास करना ऐसा भी क्या मुश्किल होगा, यह सोचना हमारी दूसरी गलती थी। बारहवीं में ही फेल हो गया। अब कैसे प्रतियोगी परीक्षाओं में बैठेगा? बिलकुल मूढ़मति हैं हम। हर बच्चा अलग होता है, यह समझना चाहिए था”, सविता भी पलंग पर मलिक जी के साथ बैठी-बैठी आँसू बहाने लगी। पर जो भी हो, भगवान का शुक्र है कि आपके सपने जैसा हमारे चीकू ने कुछ नहीं किया है। डॉक्टर ने उसे अकेले छोड़ने से मना किया है तभी पिछले छः महीने से उसी के इर्द-गिर्द मंडराती रहती हूँ। 

   उसकी अवसाद से लड़ने वाली रोज़ाना की दस दवाईयाँ ही बताती हैं कि हमारा चीकू कितने गहरे अवसाद से जूझ रहा है। सरदर्द से परेशान रहना, खुद को घायल कर लेना, बहुत सोना, बहुत खाना, लोगों में घुलने-मिलने से बचना, बात-बात पर तिनक जाना, वजन भी बहुत अधिक हो गया है उसका। पर हमारा बच्चा बहादुर है, कायर नहीं है। वह अपने अवसाद से लड़ रहा है। हमें भी उसके मनोचिकित्सक की सलाह से उसका सही इलाज कराना है और उसका मानसिक संबल बनना है, क्योंकि एक माँ-बाप का परिचय यही है कि वे यह जानें कि उनका बच्चा क्या चाहता है। 

  हमें उसके सपने पूरे करने में उसकी मदद करनी है न कि अपने अधूरे सपनों की गठरी उसके नाज़ुक कंधों पर डाल कर उसकी पीठ ही झुका देनी है। जो हुआ, सो हुआ। हमारा प्रायश्चित यही है कि हम अपने बच्चे की शारीरिक और मानसिक कमज़ोरी को दूर करके स्वस्थ होने में उसकी मदद करें। बहुत से ऐसे बच्चे हैं जो शुरू में तो पढ़ाई में कमजोर थे,परंतु बाद में उन्होंने हर क्षेत्र में नाम कमाया। उनकी कहानी बता कर उन्हें इसका प्रेरणास्रोत बनाएँगे।


नीना सिन्हा / पटना

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